एक पुरानी कहावत है, प्रतियोगिता किसी भी चीज को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। चाहे वो बाजार हो या फिर समाज, यदि प्रतियोगिता न हो तो व्यक्ति के काम करने की इच्छा समाप्त हो जाती है, और वह मनचाहे ढंग से अपने कार्य को अंजाम देता है जबकि प्रतियोगिता उसके इस पथ मे बाधे का काम करता है। और यदि वह इस प्रकार से जीत हासिल करता है तो निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है, कि उसकी काबिलियत में अवश्य ही निखार आया है।
शिक्षा में भी प्रतियोगिता काफी अहम भूमिका अदा करता है। यह विद्यार्थियों को अपनी कुशलता को बढ़ाने में खासा मदद करता है। मगर जब शिक्षा केवल प्रतियोगिता में सिमट के रह जाए तो फिर यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर बड़ा प्रश्नचिंह लगाता है। यह सोचने पर मजबूर करता है कि इस प्रकार की प्रतियोगिता का क्या फायदा, जो केवल अंकों के लिए हो जिससे विद्यार्थी के आंतरिक मूल्यों में किसी प्रकार का विकास नहीं हो रहा। वह केवल किताबों के बीच में अपनी काबिलियत ढूंढने के प्रयास में लगा हुआ है। वह किताबों को केवल इसीलिए पढ़ना चाहता है, ताकि वह परीक्षा में अच्छे अंक ला सके, जो उसके संपूर्ण विकास में अवरोधक का काम करती है। अगर विद्यार्थी इस प्रकार से पढ़कर अच्छे अंक लाने में सफल हो भी जाता है तो उसका क्या फायदा?
मगर ऐसा क्यों है? कि विद्यार्थी शिक्षा को प्रतियोगिता के नजरिए से देखता है। इसका सबसे बड़ा कारण है हमारी शिक्षा नीति, जो विद्यार्थियों की काबिलियत को उनके अंकों के आधार पर आंकती है। जिसके तहत यदि विद्यार्थी अच्छे अंक प्राप्त करेगा तभी उसे अच्छे कॉलेज में पढ़ने का मौका मिलेगा अन्यथा नहीं, जो विद्यार्थी को प्रभावित करता है कि शिक्षा की प्रतियोगिता के अंधे दौड़ में वह स्वयं को झोंक ले नहीं तो उसके मित्र किसी अच्छे कॉलेज में पढ़ रहे होंगे और वह कहीं किसी क्षेत्रीय कॉलेज तक सिमट कर रह जाएगा।
आधुनिक शिक्षा कुछ इस प्रकार की हो गई है जिसका कोई मूल्य नहीं रह गया है। जिसमें केवल अंक किसी की काबिलियत एवं उसकी खामी बताने के लिए पर्याप्त है। इसमें व्यक्ति से ज्यादा उसके अंक मायने रखते हैं। विद्यार्थी चाह कर भी अपने आप को प्रतियोगिता में झोंकने से रोक नहीं पाता क्योंकि परिवार वालों की भी यही इच्छा रहती है कि मेरा बच्चा सबसे आगे रहे। मगर वह यह देखना भूल जाते हैं कि इस प्रकार से उनके बच्चों को प्राप्त होगा भी तो क्या? केवल और केवल एक कागज का टुकड़ा जो हर जगह यह बयां करेगा कि यह बच्चा कितना कुशल है। मगर इस प्रकार की प्रतियोगिता बच्चे को अपने आंतरिक गुणों को बाहर लाने का अवसर प्रदान नहीं करती जिसका परिणाम यह होता है कि बच्चा खुद से इतना परेशान हो जाता है। जो उसे गलत कदम उठाने के लिए मजबूर करती है
अब हमारे एवं समाज के लिए यह जरुरी हो चुका है कि वह इस प्रकार की प्रतियोगिता युक्त शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का प्रयास करें और अपने बच्चों के मूल्यों के विकास पर ध्यान दे। क्योंकि किसी व्यक्ति का आंतरिक मुल्य उसका सबसे महत्वपूर्ण धन होता है। जिसके बिना व्यक्ति का शरीर केवल एक ढांचा होता है। व्यक्ति का मूल्य एवं उसकी कामयाबी को ही याद रखा जाता है ना कि उसके अंको को। अतः हमें किसी भी व्यक्ति को परखने का पैमाना बदलना होगा जो अंको पर आधारित ना होकर उसकी काबिलियत एवं मूल्यों के आधार पर निर्धारित हो।
विक्की कुमार गुप्ता
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