अपनों के अर्चन से
बदलते समाजिक दर्पण से
बेईमानो की टोली से
राजनीति की बोली से
ऐसे बदलते हैं समीकरण...
कुर्सी की लड़ाई से
सेवा की मलाई से
जाति की वोट से
और धार्मिक चोट से
क्यों बदलते हैं समीकरण...?
किसी अनचाहे तकरार से
अहम की दीवार से
किसी अनजाने प्यार से
अपनों की धुतकार से
बदल जाते हैं समीकरण...
सत्ता के गलियारों से
घर की दीवारों से
वादों के इनकार से
और हमारी हार से
बदल ही जाते ये समीकरण...
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