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Wednesday 5 June 2019

मडुआडीह एक्सप्रेस

                               
आज पोस्ट ग्रेजुएशन की परीक्षा के समाप्त होने के साथ-साथ दिल्ली में आए पूरे 5 बरस हो चुके थे। अब मन नहीं लगता था इसकी भागती दौड़ती व्यस्त दिनचर्या में। इसी ऊब का नतीजा था कि पिछले कई दिनों से शांति की तलाश कर रहा था। और इसी शांति की तलाश में मैं कल लौट रहा था, अपने शहर बनारस। दिल्ली की व्यस्त दिनचर्या के बिल्कुल विपरीत धीरे-धीरे घटित होना बनारस के स्वभाव में था। बनारस कभी किसी को अपनाने से इंकार नहीं करता, जो वहां जाता है वहीं का बनकर रह जाता है।आस्था और प्राचीनता के मिश्रण से तैयार इस शहर का सौंदर्य अद्भुत प्रतीत होता था। गंगा नदी से उठती शुष्क हवाएं इसके वातावरण में इत्र बिखेर देती थी। प्रत्येक शाम गंगा तट पर आयोजित होने वाली गंगा आरती की रोशनी शहर की तमाम रोशनियों को फीका कर देती थी। पूरे  बनारस में बिछा संकड़ी गलियों का जाल इसके स्वरूप को ख़ास आकार प्रदान करता था। इन सभी बातों से हटकर एक बात थी जो बनारस को और ख़ास बनाती थी,वो थे यहाँ के लोग एवं उनकी संस्कृति। जिसने इतने वर्षों तक भी बनारस को बनारस बनाए रखा था।
 बनारस की यादें जहन में ताजा होते ही वहां लौटने की उत्सुकता और भी प्रबल हो गई थी। ये उत्सुकता इतनी प्रबल थी कि मै ट्रेन के आने से 3 घंटे पहले ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया था।इतनी प्रबल उत्सुकता के बीच 3 घंटो का इन्तजार मेरे लिए 3 दिन के इंतज़ार जैसा था। मै कभी अपनी नजरों को पटरियों की ओर दौड़ाता तो कभी निस्तब्ध होकर प्लेटफॉर्म पर होने वाली अनाउंसमेंट को सुनता। इसी बेचैनी के बीच एक अनाउंसमेंट ने उस बेचैनी को थामने का काम किया। वो थी,“गाडी संख्या 12582,मडुआडीह एक्सप्रेस जो नई दिल्ली से चलकर  मडुआडीह जाएगी अपने निर्धारित समय से प्लेटफॉर्म नं. 6 पर आ रही है।”इतना सुनते ही मेरी नजर पटरियों की ओर दौड़ने लगी, तभी एक ट्रेन धीमी रफ्तार से प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ती हुई दिखाई दी।थोड़ी दूरी कम हुई तो यह स्पष्ट हो  गया था की यह वही ट्रेन थी जिसका इंतजार मै पिछले 3 घंटो से कर रहा था, ‛मडुआडीह एक्सप्रेस’।मगर इसकी रफ्तार इतनी धीमी थी  मानो यह भी बनारस की  दिनचर्या से प्रभावित हो।अंततः इतने लंबे इंतजार के बाद जब ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुंची तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। मै बिना कोई समय गवाएं तुरंत अपने सामान के साथ अपने सीट पर जाकर बैठ गया। कुछ वक्त बाद जब ट्रेन खुली तो बस जहन में यही ख्याल चल रहा था, दिल्ली में 5 वर्ष बिताने के साथ जिंदगी के एक और सफल अध्याय की समाप्ति हुई और अब बारी थी जिंदगी के एक और अध्याय को गढ़ने की।
   जो शांति मुझे चाहिए थी शायद उसकी शुरुआत ट्रेन से ही हो गई थी।मेरे आसपास की सभी सीटें खाली थी। मुझे लगा ट्रेन 11 बजे रात की थी शायद इसीलिए ज्यादा लोंगों ने इसमें टिकट  न करवाया हो। ट्रेन के खालीपन को मात्र एक इत्तेफाक़ समझ कर मैंने खिड़कियों को खोल दिया और अपने पैरों को सामने वाली  सीट पर टिकाकर चांदनी रात को निहारने लगा। और सोचने लगा कि इस रात के ढलते ही बनारस का सुकून मुझे अपनी आगोश में ले लेगा। यह सभी बातें जहन में चल ही रही थी कि ट्रेन कुछ पलों के लिए थम सी गई। खिड़की से जब बाहर झांककर देखा तो गाजियाबाद स्टेशन का बोर्ड दिखाई दिया। मै उसे नजरअंदाज करता हुआ एक बार फिर अपने बनारस के ख्यालों में मशगूल हो गया। कुछ समय बाद जब ट्रेन ने एक बार फिर रफ्तार भरी तो मुझे इसका एहसास तक नही हुआ, आखिर अपने ख्यालों में खोया हुआ जो था। ट्रेन के  गाजियाबाद से खुलने के कुछ पलों  के पश्चात् ही एक मधुर सी आवाज  कानो में गूँज उठी। वह आवाज मेरे सभी ख्यालों पर हावी हो गया था। मै तुरंत उस आवाज की दिशा तलाशने लगा,इसी बीच एक सुन्दर सी नवयुवती मेरे सामने आकर खड़ी हो गई।चांदनी रात की भांति चमकता चेहरा,कपड़ों में आधुनिकता की छाप, बिल्कुल किसी परिपक्व नवयुवती की तरह लग रही थी।  और जब उसने अपने स्वरपेटी से लफ्ज निकाला तो मुझे यह एहसास हुआ ,यह वही मधुर सी आवाज  थी जो मैंने कुछ देर पहले सुनी थी। उसने मेरी ओर त्योंरियों को चढाते हुए कहा,“this is my seat Mr.”।मगर उसकी सुंदरता को निहारने में मै इतना व्यस्त हो गया था कि यह सुन ही नही पाया उसने क्या कहा।एक बार फिर उस नवयुवती ने अपनी बात को दोहराया मगर इस बार उसकी आवाज और भी कठोर हो गई थी,“this is my seat Mr., Put your legs down”। मैंने तुरंत अपने पैरों को सामने वाली सीट से खींच लिया। मेरी इस हड़बड़ाहट को देखकर शायद वो भी समझ गई थी कि मै कहीं खोया हुआ था। लिहाजा मुझसे बिना कोई अगला लफ्ज बोले वह मेरे सामने वाले सीट पर बैठ गई।मै मन ही मन काफी खुश था,भला होऊं भी क्यों ना,कौन नही चाहेगा इतने सुंदर साथी के साथ सफर बिताना? सफर की शुरुआत से जो बनारस  का ख्याल मेरे मन में चल रहा था, वो अब कहीं खो सा गया था। भला इतनी सुंदर नवयुवती को छोड़ कहाँ अपने ऐसे ख्यालों में जाया जाए जो कल सुबह वास्तविकता की शक्ल लेने ही वाली थी। लिहाजा अपने सभी ख्यालो को भुला मै उसे एकटक निहारता रहा, इस उम्मीद में शायद उसकी स्वरपेटी दुबारा खुलेगी और उसमें से  मेरे लिए कुछ मधुर लफ्ज निकलेंगे।लेकिन उसने मुझे नजरअंदाज करते हुए अपने बैग से डायरी निकाली और उसमें अपने कोमल हांथों से शब्दों को उकेरने में व्यस्त हो गई।मगर  इतनी सुन्दर लड़की  को देखकर मै मानने वाला कहाँ था, आखिर दिल्ली में 5 वर्ष जो बिताए थे।
 मैंने तुरंत पूछ दिया,“आपको डायरी लिखने का शौक है?”
उसने पूरे एटीट्यूड के साथ जवाब दिया,“जी हां! मगर मै आपसे बात करने में बिल्कुल भी इच्छुक नही हूं”
उसका ऐसा जवाब सुनकर मैं शांत सा पड़ गया। अब उससे कुछ कहने की मेरी हिम्मत नही थी। मै अब इस आश में चुपचाप बैठ गया कि शायद वह मुझसे कुछ बोलेगी,और खुद को तसल्ली देने में जुट गया कि वह डायरी लिखने में व्यस्त थी और मेरा टोकना शायद उसे पसंद न आया  हो, इसीलिए गुस्सा हो गई हो।
कुछ देर बाद उसने अपनी डायरी को बैग में रखते हुए मुझसे कहा,“अब आगे कुछ नही पूछोगे”
मैंने तुरंत जवाब दिया,“अभी तो तुमने बात करने से मना किया था”
उसने कहा,“मेरे एक बार मना करते ही तुम चुपचाप बैठ गए मतलब शरीफ घर से लगते हो”।
मैने कहा,“वो तो हूं मै! मगर पहले तुमने बात करने से मना क्यों किया था”।
उसने जवाब दिया,“दरअसल मै गाजियाबाद से ट्रेन में चढ़ी हूं।ट्रेन काफी रात की थी ,और ऊपर से जब मै ट्रेन में चढ़ी तो खाली ट्रैन देखकर मैं डर गई,और जब तुम्हे यूं मेरी सीट पर पैर रखे देखा तो मुझे लगा कि तुम कोई बिगड़ैल लड़के हो। इसीलिए खुद को स्ट्रांग दिखाने के लिए मैंने ऐसे बात करने से मना कर दिया।”
 उसकी यह वजह सुनकर मैं हंस पड़ा और तुरंत उसके सामने अपना परिचय रख दिया।
“मुझे लोग सुमित कहते है।और तुम्हें”
“मुझे लोग आरती बुलाते है”
अपने परिचय के साथ उसने अपने कोमल हांथ को मेरी ओर दोस्ती के लिए बढा दिया। मैने  बिना किसी देरी के उसके इस दोस्ती के हाथ को थाम लिया। मेरे हाथ थामने के साथ ही उसके चेहरे का सिकन भी कम होने लगा था। अब वह खुद को मेरे साये में महफूज महसूस कर रही थी। उसके मिटते सिकन को देखते हुए मैने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया।
“तुम यहाँ गाजियाबाद में क्या करती हो?”
“फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही हूं ,और तुम?”
“मै पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा था।”
“मतलब! अब नही कर रहे हो?”
“नहीं।पोस्ट ग्रेजुएशन पूरी हो गई थी ,ऊपर से दिल्ली की भागती-दौड़ती जिंदगी से ऊब गया था।इसीलिए वापस जा रहा हूं अपने शहर ‛बनारस’।और तुम कहाँ तक हमारे साथ हो?”
“चिंता मत करो मै पूरे सफर में तुम्हारे साथ ही हूं”
“मतलब! तुम भी बनारस ही जा रही हो?”
“हाँ”
रात के तकरीबन 2 बज चुके थे मगर हम दोनों की आँखों में नींद कहां थी।दोनों आखिर एक-दूसरे से बातें करने में पूरी तरह डूबे हुए जो थे।उसके बात करने के अंदाज से मै समझ गया था कि उसे मेरा साथ पसंद आ रहा था।अब ऊपर वाले से एक ही कामना कर रहा था कि इस सफर का कभी अंत ना हो ,बस यूं ही चलता रहे और हम दोनों एक-दूसरे से कभी जुदा ही न हो।मगर इन कामनाओं के परे मन में यह भी ख्याल आ रहा था कि सुबह होते ही वह अपनी मंजिल की ओर चली जाएगी और मै अपने।
उसने अचानक टोका,“कहाँ खो गए?”
“कहीं नही।”
“तुम अब बनारस हमेशा के लिए जा रहे हो?”
“हाँ। और तुम ”
“मै तो कुछ महीनों में वापस लौट आउंगी।मगर बनारस में रहकर तुम क्या करोगे”
“वो नही जानता।मगर इतना जरूर जानता हूं, जिस शांति की तलाश में जा रहा हूं वह वहां जरूर मिलेगी।”
इसी बीच एक बार फिर ट्रेन की रफ्तार थमी।बाहर झाँकने पर ‛कानपुर सेन्ट्रल’ का बोर्ड दिखाई दिया।आरती प्लेटफॉर्म पर उतरने की जिद करने लगी।मै भी उसे मना नही कर पाया।हम दोनों प्लेटफॉर्म पर उतर गए।चांदनी रात ढलने को थी और शायद हम दोनों का साथ भी। इसी बीच आरती मेरी नजरों से ओझल हो गई, वह मुझे प्लेटफॉर्म पर दिखाई नही दे रही थी।मै कुछ पलों के लिए मानो बेचैन सा हो गया था। एक मुलाक़ात में ही किसी के लिए इतनी बेचैनी शायद इससे पहले कभी नही हुई थी।इसी बीच ट्रेन ने खुलने की फुंफकार भर दी थी। मगर अभी भी आरती कहीं दिखाई नही दे रही थी। अचानक पीछे से आरती के चिल्लाने की आवाज आई ।वो प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी।मैने उसकी ओर इशारा करते हुए उसे जल्दी उतरने को कहा। अब हम दोनों ट्रेन की ओर भाग रहे थे। कुछ पलों बाद मैंने कोच के गेट के सहारे खुद को ट्रेन के अंदर लाकर खड़ा कर दिया था। मगर आरती अभी भी ट्रेन का पीछा कर ही रही थी। मैंने अपना हाथ आरती की ओर बढ़ाया। मगर आरती के दोस्ती के हाथ के विपरीत मेरा यह हाथ एक हमसफर के लिए था। आरती मेरा हाथ थाम कर ट्रैन के भीतर आ गई थी।
   मै  आरती के यूँ बिन बताए गायब हो जाने से  गुस्सा था। मगर इस गुस्से को किस रिश्ते से जाहिर करूँ ये नही जानता था। इसी दुविधा के कारण मैं उससे कुछ नही कह पाया। और अपनी सीट पर खामोश सा  बैठ गया। मेरी इस खामोशी ने उससे बहुत कुछ जाहिर कर दिया था। मेरी इस ख़ामोशी को नजरअंदाज करते हुए उसने अपने बैग से डायरी निकाली और उसमें शब्दों को उकेरने में व्यस्त हो गई। मानो मेरी इस खामोशी से उसे कुछ फर्क न पड़ता हो। जो कुछ हद तक सही भी था, एक अनजान वयक्ति की खामोशी उसके लिए क्या मायने रखती थी।
“मगर मैं उसके लिए अभी भी अनजान था?”
        उसके नजरे फेर लेने से मानो मेरे सफर का सारा रस ख़त्म सा  हो गया था। अब मैं  इस सफर को विराम लगा देना चाहता था। मगर मडुआडीह पहुँचने में अभी भी 1 घंटे बाकी थे।बचे 1 घंटे मै उसके सामने नही गुजार सकता था, जिसके कारण मैं अपनी सीट से उठकर। कोच के दरवाजे के पास जाकर खड़ा हो गया। मन में बस एक ही बात चल रही थी, आखिर वह मुझसे एक सॉरी तक नही बोल सकती, इतना घमंड। कुछ देर बाद जब ट्रेन मडुआडीह पहुंच गई तो मै सोच रहा था कि शायद अब वह कुछ बोलेगी। लेकिन जब मै सीट पर पहुंच तब वह वहां नही थी, आसपास भी नही थी। उसका सामान भी वहां नही था, शायद वह चली गई थी। शायद यह मेरी उससे पहली और आखिरी मुलाक़ात थी ।मै अपने बैग को पैक कर ही रहा था कि मुझे एक लिफाफा दिखाई  दिया, उस पर मेरा नाम लिखा हुआ था। मै समझ गया था वो छोड़ गई थी, मेरे लिए। मैंने बिना कोई वक्त गवाएं उसे खोला। उसमे एक तस्वीर थी।यह कल रात की ही तस्वीर थी , कानपुर सेंट्रल की। इस तस्वीर में मै उसको बेचैनी से तलाश रहा था। मै समझ गया इसी तस्वीर को खींचने के लिए वो गायब हो गई थी। तस्वीर के नीचे एक सन्देश भी था,
“Sorry! I want to capture this journey for forever because I know we never meet again. Your care and love I always will remember.
Your Aarti”
   आज मुझे मेरी ख़ामोशी कचोट रही थी। दिल, दिमाग के अहम को धुत्कार रहा था। जिसने उस वक्त उससे मुझे बोलने से रोक दिया था।
   जहन से इन सभी बातों को भुलाना आसान नही था । मगर फिर भी मैने एक कोशिश की और इन सब बातों को नकारता  हुआ अपने बनारस के सफर को आगे बढ़ाया।मडुआडीह से बनारस के सफर में बनारस बदला हुआ नजर आया।जो स्वभाविक भी था। आधुनिकता की चमक बनारस पर भी अपनी छाप छोड़ने लगी थी, जिसके कारण काफी कुछ बदला हुआ था।थोड़ा आगे बढ़ा तो वह भुलभुलैया गलियों ने अब सड़को की शक्ल ले ली थी। प्राचीन घर भी अब कुछ कम ही नजर आ रहे थे। इतना देखने पर एक पल के लिए मै यह मान बैठा था कि बनारस भी एक व्यस्त शहर  में बदल चुका है। जहाँ के लोग खुद को व्यस्त दिखाने में लगे हुए है। लेकिन  शहर की भांति यहाँ गर्मी न थी। आज भी गंगा नदी से उठती शुष्क हवाएं शहर में इत्र बिखेर रही थी। बस फिर क्या था मैं निकल पड़ा गंगा तट की ओर यह देखने की कहीं इस आधुनिकता ने उसे भी बदल तो नही दिया? जब गंगा तट पर पहुंचा तो कोई परिवर्तन नजर नही आया, गंगा की धारा आज भी अविरलता के साथ बह रही थी। मै समझ गया भले ही आधुनिकता ने इसके स्वरुप को कितना भी क्यों न बदल दिया हो, इसके स्वभाव को बदलने में वह असफल ही रही थी। आज भी बनारस लोगों को अपनी ओर खींच रहा था। लोग भले ही खुद को व्यस्त दिखा रहे थे मगर उनके काम करने का ढंग आज भी धीमा ही था।
    मै एक बार अपने घर जाना चाहता था । मगर बनारस ने मेरी  गति को खुद की ही भांति धीमा बना दिया था। मै गंगा तट से हिल ही नही पा रहा था।इसकी सुंदरता मुझे बांधे हुए थी।मैं वही बैठा रहा, बस गंगा के अविरल जल को निहारता रहा। मानो वह मुझे अपनी तरह आगे बढ़ने के लिए कह रही हो। शाम ढल चुकी थी, गंगा आरती की तैयारियां चल रही थी। मगर मेरी उसमे शामिल होने की कोई इच्छा नही थी। मैं यूँ ही घाट पर बैठा रहा। कभी ट्रेन के सफर को याद कर दुखी होता तो कभी  गंगा के बढ़ते रहने के सन्देश को सच मानकर खुद को तसल्ली देने की कोशिश करता।इसी बीच  पीछे से एक आवाज सुनाई दी । ये आवाज कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी, बिल्कुल आरती जैसी। मै इस आवाज को केवल मन का एक वहम मानकर अपनी जगह पर बैठा रहा। कुछ पलों बाद वह आवाज दुबारा सुनाई दी , इस बार मै खुद को रोक नही पाया और तुरंत पीछे मुड़ गया।मै जिस आवाज को  मन का वहम मान रहा था, वो वास्तविकता थी।पीछे सीढ़ियों पर आरती ही थी, और वह मुझे ही आवाज लगा रही थी। उसे देखते ही मुझमे एक नई ऊर्जा दौर पड़ी। मै तुरंत उसकी ओर दौड़ा चला गया।पास पहुंचा तो उसकी आँखों में आंसू थे। मानो उसे भी मुझसे मिलने की इतनी ही बेचैनी थी ,जितनी की मुझे थी। मैंने तुरंत उसे अपने गले से लगा लिया। मेरा साथ एक बार फिर पाकर उसका चेहरा खिल उठा था। लेकिन मेरे मन में अभी भी एक सवाल उमड़ रहा था,“आखिर सुबह वह मुझे बिन बताए ट्रेन से क्यों चली गई?”। मैंने उसके शांत होते ही अपना ये सवाल उसके सामने रख दिया।
उसने कहा,“ कानपुर से तुम मुझ पर गुस्सा थे,मै वहीं तुमसे माफी मांगना चाहती थी, मगर तुम्हारा गुस्सा देख मुझमे हिम्मत नही हुई।लेकिन जब मुझे एहसास हुआ की तुम्हारा गुस्सा बेवजह है।तो मुझे भी गुस्सा आ गया और मै तुम्हे बिन बताए ट्रेन से चली गई।लेकिन स्टेशन से बाहर निकलते ही जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि तुम्हें यूं बिन बताए जाकर मै गलत कर रही हूं तो मैं वापस ट्रेन के पास आई, लेकिन तबतक तुम वहां से जा चुके थे।”
आखिर बनारस के धीमेपन ने एक बार फिर हम दोनों को मिला दिया था। जो सफर दिल्ली से ‛मडुआडीह एक्सप्रेस’ में शुरू हुआ था वो इतनी सुन्दर मंजिल पर जाकर समाप्त होगा, मैंने कभी सोचा तक नही था।

By - Vicky Gupta
©compilethethoughts.blogspot.com


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