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Sunday, 28 April 2019

क्षण हूँ मै!

स्थिर नही अस्थिर हूँ मैं,
हर परिस्थिति में गंभीर हूँ मैं,
कभी ख़ुशी के गीत सुनाऊं,
तो कभी मायूसी के आलम से भर जाऊं
मै क्षण हूं आखिर कैसे थम जाऊं?

लघु नही विशाल हूँ मैं,
हर घडी बदलता काल हूँ मैं,
सभी को वर्तमान से भविष्य का पथ सुझाऊं,
मै क्षण हूं आखिर कैसे थम जाऊं?

खाली कलश में पड़ी एक बूंद हूँ मैं,
दुःख के सागर में कुछ पलों का सुकून हूँ मैं,
कभी छलावा तो कभी सत्य का रूप कहाऊं,
मै क्षण हूं आखिर कैसे थम जाऊं?

विनास का क्रोध हूँ मैं,
जंग का प्रतिशोध हूँ मैं,
कभी बीते कल का एहसास कराऊँ,
तो कभी खुद बीता कल कहाऊं,
मै क्षण हूं आखिर कैसे थम जाऊं?

बाहरी चमक में एक झलक हूँ मैं,
तमाम चिंताओं की ललक हूँ मैं,
पल के चढ़ते चढ़ जाऊं,
पल के ढलते ढल जाऊं,
मै क्षण हूं आखिर कैसे थम जाऊं?

“यह कविता क्षणिक महत्वता को दर्शाती है”

By - Vicky Kumar Gupta
Edited By - Ragini chaturvedi

©compilethethoughts.blogspot.com


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